Thursday 8 April, 2010

काश चड़ीगढ़ जैसी हो जाये दिल्ली


बॉलीवुड वाले तो दिल्ली आकर मुंबई की सडको को कोसते हैं लेकिन मुझे चंडीगढ़ की सड़के दिल्ली से बहुत बेहतर लगी।
पिछले दिनों पंजाब किंग्स इलेवन और डेल्ही डेयरडेविल्स का आईपीएल मैच देखने के सिलसिले में चण्डीगढ़ जाना हुआ। वैसे भी चण्डीगढ़ देखने की तमन्ना बहुत दिनों से दिल में थी। मैं देखना चाहता था कि आखिर दो राज्यों पंजाब और हरियाणा की राजधानी व केन्द्र शासित प्रदेश चण्डीगढ़ का विकास किस तरह किया गया है। इससे पहले चण्डीगढ़ की तारीफ सिर्फ अपने दोस्तों से ही सुनी थी, जो बताते थे कि वहां हर सड़क एक-दूसरे को समकोण पर काटती है। साथ ही,वहां का माहौल भी बेहद खुशनुमा है।
बहरहाल, पिछले महीने के एक खुशनुमा शनिवार की सुबह मैंने चण्डीगढ़ एयरपोर्ट पर लैण्ड किया। जाहिर है कि राजधानी दिल्ली के चमचमाते एयरपोर्ट से चण्डीगढ़ एयरपोर्ट की तुलना करने पर उसे 10 में से 4 ही नंबर दिए जाएंगे। हालांकि तभी मैंने देखा कि चण्डीगढ़ एयरपोर्ट का मेंटिनेंस खुद गवर्नमेंट कर रही है, जबकि दिल्ली एयरपोर्ट को एक प्राइवेट कंपनी देखती है। जाहिर है कि दोनों एयरपोर्ट का फर्क देखकर उसकी वजह खुद ब खुद मेरी समझ में आ गई। खैर, उदास मन से मैं एयरपोर्ट से बाहर निकला ही था कि बाहर ढोल बजाते पंजाबी मुण्डों को देखकर तबीयत खुश हो गई। गुलाबी पगड़ी और सफेद कुर्ता पहने वे ढोल वाले शायद किसी के स्वागत के लिए आए हुए थे, लेकिन उन्हें देखकर मेरी तबीयत खुश हो गई।
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही गाड़ी ने चौड़ी सड़कों पर स्पीड पकड़ ली। दिल्ली की भीड़ भरी सड़कों पर घंटों जाम में फंसे रहने के आदी मुझे जैसे इंसान के लिए यह मानों किसी आश्चर्य की तरह था। उससे भी ज्यादा हैरत की बात यह थी कि सड़कों के बराबर में दोनों और बनीं ग्रीन पट्टी उनसे भी ज्यादा चौड़ी थीं। जबकि दिल्ली में गिनी-चुनी सड़कों के ही दोनों और गिनती के पेड़ लगाए हुए हैं। यह पेड़ों की मेहरबानी थी कि वहां की हवा में एक अलग तरह की ताजगी महसूस हो रही थी। बिल्कुल खाली सड़कों पर हवा से बातें करती गाड़ी को देखकर मुझे मजबूरन ड्राइवर से पूछना ही पड़ा कि भैया यहां पर टै्रफिक जाम नहीं लगता क्या? उसने कहा कि सर वैसे तो आज सेटरडे की वजह से सड़कों पर ट्रैफिक कम है, लेकिन आम दिनों में भी यहां जाम नहीं लगता।
इस तरह खाली सड़क पर गाड़ी एयरपोर्ट से कुछ बीस मिनट में चण्डीगढ़ के सेक्टर 17 स्थित होटल में पहंुच गई। होटल में फ्रेश होकर मैं दोबारा से लकी नाम के उस ड्राइवर के साथ चण्डीगढ़ की सड़कों पर निकल पड़ा। पता नहीं क्यों, वहां की खाली पड़ी चौड़ी-चौड़ी सड़कें बार-बार मुझे ऐसा महसूस करा रही थीं कि मानों स्वर्ग लोक में आ गया हंू। यह प्लान करके शहर बसाने के सिस्टम का ही कमाल था कि चण्डीगढ़ में शहर के एक कोने से दूसरे कोने में जाने पर भी आपको ज्यादा वक्त नहीं लगता है। मुझे रास्ते में पड़ने वाले हरेक चौराहे की खूबसूरती निहारते देखकर लकी ने बताया कि ये सभी चौराहे उस सेक्टर की अथॉरिटी द्वारा डिवेलप किए जाते हैं। उसके बाद उनके बीच कॉç पटीशन होता है और सबसे अच्छा चौराहा डिवेलप करने वाले को प्राइज दिया जाता है।
सबसे पहले मैं चण्डीगढ़ के सबसे फेमस प्लेस रॉक गार्डन गया। बहुत बड़े इलाके में फैले इस अनोखे गार्डन को देखकर समझ आ गया कि बेकार चीजों का किस तरह सही उपयोग किया जा सकता है। दरअसल, यह गार्डन में तमाम बेकार और रद्दी आइट स को दर्शनीय रूप में लगाया गया है। उसके बाद मैं पास ही स्थित सुखना लेक पहंुचा। मॉडर्न सिटी चण्डीगढ़ में इतनी खूबसूरत लेक देखकर दिल खुश हो गया। सिर्फ यह शहर ही नहीं, बल्कि वहां के लोग भी उतने ही अच्छे लगे। गर्मी की वजह से मैंने सुखना लेक के शॉपिंग कॉ पलेक्स में एक शॉप से कोल्ड डिं्रक खरीदनी चाही, लेकिन उस दुकानदार ने बेहद विनम्रता से कहा कि सॉरी मेरे पास 100 के चेंज नहीं हैं, इसलिए आप तीन दुकान छोड़कर दूसरी कोल्ड डि्रंक की दुकान से कोल्ड डिं्रक खरीद सकते हैं। उसके बाद जब मैं वॉश रूम पहंुचा, तो वहां लगी चालू कण्डोम मशीन को देखकर एमसीडी के टायलेट्स पर लगीं बदतर कण्डोम मशीन याद आ गईं। तब मुझे लगा कि इस शहर में वाकई सब कुछ सिस्टम से चलता है।
बहरहाल, शाम को मोहाली के छोटे लेकिन बेहद खूबसूरत ग्राउण्ड में बेहद रोमांचक मैच में डेल्ही डेयरडेविल्स को जीतता देखकर मैं अगले दिन दिल्ली वापस आ गया।

Friday 25 September, 2009

बेटी चाहिए हमें!


आमतौर पर लड़का होने पर ही बड़े पैमाने पर खुशियां मनाई जाती हैं। लड़की हो, तो बड़ा न्यूट्रलसा इमोशन देखने को मिलता है। पहले तो लोग बिल्कुल मायूस ही होते थे, लेकिन अब लगता है, जैसे लोग चाहकर भी अपना इमोशन शो नहीं करना चाहते। जाहिर है, लक्ष्मी घर आने को लेकर लोग अब धीरे-धीरे अच्छी बात मानने लगे हैं।

अब लड़के की बेइंतिहा चाहत रखने वाले हमारे समाज की सोच में बदलाव आ रहा है। सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, तान्या सचदेव, मीरा कुमार और कृष्णा पाटिल जैसी बेटियों ने पैरंट्स को लड़की पैदा करने का हौसला दिया है।

लड़की लड़के से कम नहीं
रिजल्ट किसी छोटे कॉम्पिटीटिव एग्जाम का हो, सिविल सर्विस का हो या फिर हाईस्कूल और इंटरमीडिएट का, लड़कियां हर जगह परचम लहरा रही हैं। यह सच है कि अपने बलबूते जिंदगी की ऊंचाइयां हासिल करने वाली लड़कियों ने लोग और समाज की सोच को बदलने में बड़ा योगदान दिया है।

रिटायर्ड इंजीनियर सुकुमार कहते हैं, 'पहली संतान लड़की होने के बाद सब रिश्तेदारों ने बहुत जोर दिया कि अल्ट्रासाउंड कराकर ही दूसरे बच्चे का चांस लिया जाए, ताकि एक लड़का भी हो जाए। लेकिन मैंने इससे साफ इनकार कर दिया और अपना पूरा ध्यान लड़की की पढ़ाई-लिखाई पर लगाया। आज वह एक बड़ी कंपनी में सीनियर मैनेजर है। उसके रिश्ते के लिए मेरे पास लड़कों की लाइन लगी हुई है। अब तो मैं ही लड़कों को अपनी लड़की से कम सैलरी की वजह से रिजेक्ट कर देता हूं।'

बुढ़ापे का सहारा
लड़के की चाहत रखने वाले तमाम मां-बाप की सबसे बड़ी सोच यही होती है कि लड़का उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। लेकिन आजकल लड़के उनकी सोच पर खरे नहीं उतर रह। लड़की तो शादी होने पर ही ससुराल जाती है, लेकिन लड़के तो उससे पहले ही पढ़ाई के लिए बाहर चले जाते हैं और फिर करियर व पैसे की चाह में पैरंट्स से दूर हो जाते हैं। फिर खुदा न खस्ता अगर ढंग की बहू नहीं मिली, तो जीना और भी दूभर। दूसरी ओर, लड़की ससुराल जाकर भी पैरंट्स की उतनी ही फिक्र करती है। हाउस वाइफ सुमन बताती हैं, 'मेरे पति की असमय ही एक्सिडेंट में डेथ हो गई थी। उसके बाद मैंने दोनों बेटा-बेटी को बड़ी मुश्किल से पढ़ाया। लड़की की सीए बनने के बाद शादी कर दी और लड़का इंजीनियरिंग करने बाहर चला गया। पढ़ाई पूरी करके उसने अपनी बैचमेट से शादी करली और यूएस में सेटल हो गए। फिलहाल मेरे लिए तो मेरी बेटी ही बुढ़ापे का सहारा है।'

बोझ नहीं है लड़की

लड़की ना चाहने के पीछे पैरंट्स की सोच यह भी होती है कि उसकी शादी के लिए दहेज का इंतजाम करना पड़ेगा और लड़के वालों के आगे झुकना पड़ेगा। लेकिन आजकल की इंडिपेंडेंट लड़कियों ने मां-बाप की दहेज की चिंता दूर कर दी है। गवर्नमेंट डिपार्टमेंट में क्लर्क रमेश कहते हैं, 'बेटी के जन्म के वक्त एक बार तो दिमाग में आया था कि इसकी शादी कैसे होगी? लेकिन फिर मैंने टेंशन छोड़कर उसकी पढ़ाई पर ध्यान दिया। मेरी बेटी पढ़-लिखकर आर्किटेक्ट बन गई। लड़के वालों ने बिना दहेज के ही मांग लिया। उसकी शादी के दौरान मुझे इस बात का जरा भी अहसास नहीं हुआ कि मैं किसी लड़की का लाचार बाप हूं।'

Monday 24 August, 2009

हंगामा है क्यों बरपा!


विदेश में किसी इंडियन सिलेब्रिटी के साथ नस्लीय भेदभाव हो, तो पूरा देश उबल पड़ता है, लेकिन जब भारत में किसी और सिलेब्रिटी द्वारा इस तरह की शिकायत की जाती है, तो उस पर कोई कान नहीं देता:

नस्लीय मसला
पिछले दिनों अमेरिकन एयरपोर्ट सिक्यूरिटी ऑफिसर्स के ऊपर रेसिज्म का इल्जाम लगाकर शाहरुख खान मीडिया की सुर्खि में छा गए। नैशनल और इंटरनैशनल न्यूज चैनल्स और न्यूज पेपर्स ने इस खबर को प्रमुखता से पब्लिक के सामने पेश किया। तमाम भारतीय इस मामले से काफी दुखी हुए, क्योंकि उन्हें किंग खान के साथ हुआ व्यवहार अपने साथ हुआ व्यवहार लगा। हालांकि यह बात और है कि अपने ही देश के भीतर जब कुछ लोग इस तरह के नस्लवाद के आरोप लगाते हैं, तो हम लोग उलटे उन पर ही कुछ और आरोप लगा कर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करते हैं।

पिछले साल शबाना आजमी ने इल्जाम लगाया था कि उन्हें और जावेद अख्तर को मुस्लिम होने की वजह से मुंबई में एक फ्लैट नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने कहा, 'मैं मुंबई में अपने लिए एक घर खरीदना चाहती हूं, लेकिन मुस्लिम होने की वजह से कोई मुझे घर बेचने को तैयार नहीं है। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि जब मैं और जावेद अख्तर ही अपने लिए घर नहीं खरीद पा रहे हैं, तो बाकी मुसलमानों का क्या हाल होगा?' पता नहीं इसके बाद शबाना को फ्लैट मिल पाया या नहीं, लेकिन ससायटी पर रेसिज्म का इल्जाम लगाने के लिए उनकी फजीहत जरूर हुई।

कुछ ऐसी ही घटना पिछले दिनों इमरान हाशमी के साथ हुई, जब उन्होंने मुंबई की एक ससायटी पर अपने मुस्लिम होने की वजह से उन्हें फ्लैट नहीं बेचने का इल्जाम लगाया। लेकिन इमरान को यह मामला उलटा ही पड़ गया। इमरान के बयान के बाद उनके साथ-साथ महेश भट्ट को भी ससायटी की नाराजगी झेलनी पड़ी। और तो और मुंबई के एक बीजेपी नेता ने तो इमरान के खिलाफ केस भी दर्ज करा दिया। इमरान की इतनी आलोचना हुई कि उन्हें यू टर्न लेते हुए अपना बयान बदलना पड़ा। साथ ही, इमरान को कथित रूप से फ्लैट बेचने के लिए इनकार करने वाले आदमी ने साफ तौर पर कहा कि उसे तो फ्लैट बेचना ही नहीं था।

काला हिरन मारने के केस में फंसने के बाद सलमान खान ने भी कुछ ऐसा ही बयान दिया था कि मुस्लिम होने की वजह से मुझे फंसाया जा रहा है। हालांकि उन्हें अपने इस बयान का बहुत ज्यादा फायदा नहीं मिला और बॉलिवुड के इस सुपरस्टार को जेल की हवा खानी पड़ी। इसी तरह संजय दत्त ने भी मुंबई बम कांड के सिलसिले में फंसने पर इल्जाम लगाया था कि मुझे इसलिए फंसाया गया है, क्योंकि मेरी मां मुस्लिम थी। लेकिन संजय दत्त का यह बयान भी कब आया और कब हवा हो गया, किसी को पता ही नहीं चला। इंडस्ट्री के एक और मुस्लिम हीरो सैफ अली खान ने भी अपने धर्म की वजह से मुंबई में फ्लैट नहीं मिल पाने की शिकायत की थी, लेकिन उसे भी ज्यादा तूल देने की बजाय सबने रफा-दफा की दिया गया।

... लेकिन बदल जाते हैं हम
इन सब मामलों के उलट जब शिल्पा शेट्टी ने देश से बाहर रिऐलिटी शो 'बिग ब्रदर' के दौरान जेड गुडी पर नस्लवादी टिप्पणियों का आरोप लगाया, तो सारा देश उबल पड़ा। ब्रिटिश लोगों के साथ-साथ भारतवासियों ने भी इस मामले में अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी। सभी जानते हैं कि इस घटना से पहले बॉलिवुड में काफी लंबी पारी खेल चुकी शिल्पा शेट्टी को कोई खास सफलता हासिल नहीं हुई थी, लेकिन इस मामले को राष्ट्रीय अस्मिता पर हमले का रूप देते हुए ऐसा हंगामा मचाया गया कि शिल्पा रातोंरात इंटरनैशनल स्टार बन गईं।

ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि जब हम भारतवासी विदेश में किसी भारतीय के साथ कोई दुर्व्यवहार या रंगभेद होने पर उबल पड़ते हैं, तो फिर देश के भीतर किसी अल्पसंख्यक के इस तरह की शिकायत करने पर उस पर कान क्यों नहीं देते? चिल्ड्रन फिल्म ससायटी ऑफ इंडिया की पूर्व अध्यक्ष और सोशल वर्कर नफीसा अली इस तरह की घटनाओं से काफी व्यथित हैं। वह कहती हैं, 'मुझे समझ नहीं आता कि शाहरुख और शिल्पा के मामले में इतनी हाय तौबा मचाने वाले लोग डॉ. कलाम के साथ दुर्व्यवहार के मामले में चुप क्यों बैठ गए? अगर हम वास्तव में उन्हें अपना हीरो मानते हैं, तो हमें सड़क पर उतर आना चाहिए था। इसी तरह मीडिया को भी शाहरुख की तरह डॉ. कलाम के अपमान की खबरें को पूरे दिन चलाना चाहिए था।'

समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार पब्लिक के इस व्यवहार को ढोंग मानते हैं। वह कहते हैं, 'विदेश में किसी खास भारतीय के साथ कुछ हो जाने पर हो-हल्ला और अपने देश में नस्लीय भेदभाव की शिकायतों पर चुप बैठना, यह दर्शाता है कि हम भारतीय ढोंगी हैं। मैं यह नहीं कहता कि विदेशों में किसी भारतीय के साथ रंगभेद हो, तो हमें चुप बैठना चाहिए। लेकिन अपने देश में रंगभेद की शिकायत पर भी हमें मौन नहीं साधना चाहिए।'

दूसरी ओर, ट्रेड ऐनालिस्ट तरण आदर्श कहते हैं, 'भारतीयों के साथ विदेशों में रेसिज्म की प्रॉब्लम कोई नई नहीं है। लेकिन देश के भीतर किसी सिलेब्रिटी के साथ रंगभेद की बातें मेरी जानकारी में नहीं है।'

Tuesday 12 May, 2009

कहीं आप भी पप्पू तो नहीं!


भले ही इलेक्शन कमिशन अपने पप्पू कैंपेन को सफल मान रहा हो ना मान रहा हो, लेकिन युवाओं को अपने वोट ना डालने वाले फ्रेंड्स को पप्पू कहकर चिढ़ाने का एक नया तरीका जरूर मिल गया।

वोटिंग खत्म हो जाने के बाद इलेक्शन का शोर भले ही थम गया हो, लेकिन पप्पू अभी भी हॉट टॉपिक बना हुआ है। लोग एक-दूसरे से आपने वोट डाला या नहीं पूछने की बजाय आप पप्पू तो नहीं बने पूछ रहे हैं? जाहिर है कि ऐसी कंडिशन में वोट नहीं डालने वालों यानी की पप्पूओं की खूब फजीहत हो रही है। एक एमएनसी में बतौर सीनियर मैनेजर काम करने वाले रोहन आलस की वजह से अपने वोटिंग राइट का इस्तेमाल करने नहीं गए। इस तरह रोहन ने वी डे को हॉलिडे के रूप में सेलिब्रेट किया, लेकिन अगले दिन ऑफिस पहंचकर उनका काफी मजाक बना। रोहन ने अपने एक्सपीरियंस के बारे में बताया, क्ववोटिंग से अगले दिन जब मैं ऑफिस पहंचा, तो हाथ मिलाते हुए मेरे कलीग आशीष की नजर सबसे पहले मेरे दांए हाथ की पहली उंगली पर गई। उस पर वोटिंग इंक का काला निशान ना देखकर उसने यह बात सारे ऑफिस में फैला दी। बस फिर क्या था, सभी लोगों ने मुझे पप्पू कहकर चिढ़ाना शुरू कर दिया।
कुछ इसी तरह का एक्सपीरियंस एक मीडिया ऑगेüनाइजेशन से जुड़े शिरीष का रहा। ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल पाने की वजह से वह वोट नहीं डाल पाए। इसका खामियाजा उन्हें अपने दोस्तों के बीच पप्पू बनकर भुगतना पड़ा। शिरीष कहते हैं, मेरे ऑफिस में वोटिंग के लिए आने-जाने के वक्त में थोड़ी छूट दी गई थी, इसलिए मैंने सोचा था कि शाम को जल्दी लौटकर वोट कर दंूगा। लेकिन ऑफिस से जल्दी निकलने के बावजूद मैं वक्त से वोट डालने नहीं पहंुच सका। उस दिन से लेकर आज तक जिस भी दोस्त से मिल रहा हंू। सभी पप्पू कहकर मेरा मजाक बना रहे हैं। न सिर्फ अपनी या ऑफिस, बल्कि इलेक्शन कमिशन की गलती से भी पप्पू बनने वाले लोगों को भी काफी परेशानी झेलनी पड़ रही है। पेशे से टीचर निखिल जब अपना वोटर आई कार्ड लेकर वोट डालने पहंुचे, तो वोटर लिस्ट में अपना नाम नहीं पाकर उन्हें बेहद गुस्सा आया। जाहिर है कि वोटर लिस्ट में नाम नहीं होने की वजह से निखिल को वोट नहीं डालने दिया गया। नतीजतन निखिल को भी उनके दोस्तों ने पप्पू का खिताब दे डाला।
पब्लिक के बीच पप्पू बनने का डर इस कदर पसरा हुआ है कि फॉर्म 49 ओ का इस्तेमाल करके नेगेटिव वोट डालने वालोंया फिर किसी को भी वोट नहीं डालने वालों ने भी बूथ ऑफिसर से रिक्वेस्ट करके अपनी पांचवीं उंगली में वोटिंग इंक से काला निशान बनवा लिया, ताकि लोग उन्हें पप्पू ना कहें। ऐसा नहीं है कि सिर्फ लड़के ही पप्पू फोबिया का शिकार हो रहे हैं, बल्कि वोट नहीं डालने वाली लड़कियां भी इसका शिकार हुई हैं। यह बात और है कि फ्रेंड्स उन्हें पप्पू की बताय पप्पी कहकर चिढ़ा रहे हैं। डीयू स्टूडेंट दिव्या अपने इलाके का कोई भी कैंडिडेट उनके वोट के लिए सही नहीं लगा। पसंद नहीं आया। खैर, वोटिंग डे को तो दिव्या ने घर पर आराम फरमाया, लेकिन अगले दिन फ्रेंड्स के बीच उनका खूब तमाशा बना। दिव्या कहती हैं, मेरे फ्रेंड्स हाथ मिलाने पर सबसे पहले हाथ पर वोटिंग इंक का साइन देख रहे थे। मेरे हाथ पर वह साइन नहीं देखकर उन्होंने मुझे पप्पी कहकर खूब चिढ़ाया। तब मुझे अहसास हुआ कि इससे अच्छा, तो इससे अच्छा अगर मैं वोट डाल देती, तो कम से कम पप्पी तो ना बनना पड़ता।
अभी तक के इलेक्शनों में लोग-बाग वोट डालने के बाद लगाई जाने वाली ब्लैक इंक को भद्दा निशान मानकर कैसे भी हटाने की कोशिश करते थे, लेकिन इस बार पप्पू कैंपेन ने इसे न्यू फैशन स्टेटमेंट बना दिया। एक पोलिंग बूथ पर वोटिंग इंक लगाने का काम कर रहे मनोज (बदला हुआ नाम) ने बताया कि पहले जहां लोग नामचारे के लिए ब्लैक इंक का निशान बनवाते थे, वहीं अबकी बार वे बाकायदा कहकर ठीकठाक दिखने वाला निशान बनवा रहे थे। यही नहीं, कुछ युवाओं ने तो बाकायदा अपने चैट स्टेट्स में मैंने वोट डाला हैं और मैं पप्पू नहीं बनां अनाउंस किया है।
हालांकि पप्पू नाम वाले अभी भी परेशान हैं, क्योंकि उन्हें तो वोट डालने के बाद भी पप्पू ही कहा जा रहा है!

Saturday 13 December, 2008

नहीं सूख रहे आतंक के जख्म



मुंबई आतंकवादी हमले को बीते करीब-करीब दो हफ्ते बीत चुके हैं, लेकिन लोगों के जेहन से उसकी खैफनाक यादें अभी भी नहीं मिट पा रही हैं। कुछ लोग अवचेतन अवस्था में खुद पर हमले के डर से दो चार हो रहे हैं, जबकि कइयों की रातों की नींद गायब हो चुकी है।


मुंबई में हुए आतंकवादी हमले से न सिर्फ जान-माल का काफी नुकसान हुआ है, बल्कि लोगों को गहरा मानसिक आघात भी पहुंचा है। हालांकि उन हमलों को करीब दो हफ्ते बीत चुके हैं, लेकिन उस दौरान टेलिविजन और अखबारों में दिखाए गए खतरनाक दृश्य अभी भी लोगों का पीछा नहीं छोड़ रहे। `बॉलिवुड सिटी´ पर हुए इस हमले ने कई सिलेब्रिटीज को भी प्रभावित किया है। खबर है कि आतंकवादी हमले से डिस्टर्ब हुए आमिर ने अपनी आने वाली फिल्म `गजनी´ का प्रमोशन आगे खिसका दिया है। पहले से तय कार्यक्रम के मुताबिक आमिर को नवंबर के अंत में `गजनी´ का प्रमोशन शुरू करना था, लेकिन 26 नवंबर को हुए हमले ने उन्हें डिप्रेशन में ला दिया है। इसी वजह से उन्होंने अपनी फिल्म के प्रमोशन आगे खिसका दिया। आमिर की ही तरह कई और सिलेब्रिटीज भी इसी तरह की परेशानी से ग्रस्त हैं।
सिर्फ सिलेब्रिटी ही नहीं, इस आतंकवादी हमले ने आम आदमी को भी काफी नुकसान पहुँचाया है। आईटी प्रफेशनल अंकुर बताते हैं, `आतंकवादियों और कमांडोज के बीच लगातार हो रही गोलीबारी, आग और धमाकों के सीन मेरे जेहन से निकल नहीं पा रहे हैं। टीवी देखते हुए अभी भी मेरी आंखों के सामने गोलीबारी और धमाकों के वही सीन छाने लगते हैं।´ दिल्ली यूनिवरसिटी की स्टूडेंट मीनाक्षी को इन हमलों की वजह से नींद नहीं आने की परेशानी हो गई है। उन्होंने बताया, `आतंकवादी जिस दर्दनाक तरीके से लोगों पर गोलियां बरसा रहे थे, उसे मैं भूल नहीं पा रही हूँ । दिन के वक्त तो मैं फिर भी ठीक रहती हूं, लेकिन रात को मुझे बहुत डर लगता है। डरावने सपने आने की वजह से मेरी आंख खुल जाती है और फिर दोबारा नींद नहीं आती।´
गौरतलब है कि यह पहला ऐसा आतंकवादी हमला था, जिस पर काबू पाने में सुरक्षा बलों को इतना लंबा वक्त लगा। साथ ही, टेलिविजन चैनलों पर लगातार जवाबी कार्रवाई का लाइव टेलिकास्ट किया जा रहा था। इस बात ने लोगों पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। बिजनेस मैन राजीव कहते हैं, `उन दिनों हमारा कामकाज काफी हद तक ठप हो गया था। जिसे देखो, वही मुंबई आतंकवादी हमले की चर्चा करता नजर आता था। हम भी लगातार टीवी देखते रहते थे। तब तो उत्सुकता और जोश की वजह से हमने वह प्रसारण देखा, लेकिन उसका दुष्प्रभाव अब समझ आ रहा है। अब हालत यह हो गई है कि थोड़ा-बहुत शोर या पटाखे की जोरदार आवाज ही मुझे भीतर तक कंपा देती है।´
जाने-माने साइकाटि्रस्ट डॉक्टर समीर पारिख कहते हैं कि हमले के वक्त वहां मौजूद लोगों और उनके करीबी रिश्तेदारों को इस तरह की शिकायत होने की ज्यादा संभावना है। यह एक तरह की साइकोलॉजिकल प्रॉब्लम है, जिसके तहत हम ट्रॉमा को भूल नहीं पाते और लगातार उसे महसूस करते रहते हैं। रही बात टेलिविजन पर आतंकवादियों व सुरक्षा बलों की लड़ाई और तबाही के सीन देखने वालों की, तो उनकी परेशानी भी स्वाभाविक है। इस तरह की परेशानी से ग्रस्त लोगों को अपने करीबी लोगों के साथ बातचीत करके अपनी परेशानी साझा करनी चाहिए। साथ ही, काम में मन लगाने की कोशिश करनी चाहिए। किसी हादसे के तीन-चार हफ्ते बाद तक उसकी बुरी यादें जेहन में रहती हैं और फिर सब सामान्य होने लगता है। लेकिन उसके बाद भी परेशानी दूर ना हो, तो किसी अच्छे मनोचिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।

Friday 12 December, 2008

यह राह नहीं आसां.....


पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार ने `लिव इन´ के मुद्दे पर बदलाव के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा है। प्रस्ताव में कहा गया है कि लंबे अरसे से `लिव इन´ में रह रही महिलाओं को पत्नी जैसे अधिकार दिए जाएं। भले ही हमारे समाज ने कितनी भी तरक्की कर ली हो, लेकिन अभी भी `लिव इन´ को मान्यता नहीं मिली है। ऐसे में इस प्रस्ताव ने नई बहस को जन्म दे दिया है :

भारत बहुत तेजी से बदल रहा है। साथ ही यहां रहने वाले लोग और उनके रहने-सहने का अंदाज भी बदल रहा है। पहले जहां सिर्फ गिने-चुने फील्ड्स के लोग ही रात की शिफ्ट में काम किया करते थे, वहीं आज ऐसे फील्ड्स की कमी नहीं जिनमें चौबीसों घंटे काम होता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ लड़के, बल्कि लड़कियां भी इन फील्ड्स में काम कर रही हैं। येलड़के-लड़कियां छोटे शहरों से आकर मेट्रोज में अपने भविष्य की तलाश रहे हैं। जाहिर है कि घर से दूर रहने की वजह से उन्हें कहीं ना कहीं भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है। जवानी की दहलीज पर खड़े होने की वजह से अपोजिट सेक्स का पार्टनर उन्हें ज्यादा अट्रेक्ट करता है। खासतौर पर लड़कियों को जो कि अभी तक बाप और भाई के सिक्युरिटी कवर में रहने की आदी होती हैं। फाइनेंशल और सिक्युरिटी जरूरतों की वजह से वे किसी लड़के का हाथ थाम लेती हैं। करियर की शुरुआती स्टेज में होने की वजह से वे लोग शादी जैसा कदम नहीं उठा पाते। ऐसे में बिना शादी किए पति-पत्नी की तरह साथ रहने के लिए उनके पास `लिव इन´ का ऑप्शन होता है।

धरती पर बन रही हैं जोडिया
यूथ को हमेशा से बदलाव और विद्रोह के लिए जाना जाता है। यही वजह है कि वह हमेशा कुछ नया करने की सोचता है। माना जाता है कि जोडिया स्वर्ग में बनती हैं, लेकिन माडर्न यूथ इस बात से इत्तफाक नहीं रखता। अब वह पैरंट्स द्वारा गले में घंटी की तरह से बांध दिए जाने वाले किसी भी लाइफ पार्टनर से बंधने के लिए तैयार नहीं है। वह स्वर्ग में बनी जोडियों को निभाने की बजाय धरती पर ही काफी सोच समझ कर जोड़ी बनाना चाहता है। अक्सर बड़े-बूढ़ों युवाओं को आशीर्वाद देते देखे जाते हैं कि तुम्हे अच्छा जीवनसाथी मिलें, क्योंकि उनका मानना होता है कि एक बार जो लाइफ पार्टनर आपसे जुड़ जाता है, उसे सारी जिंदगी निभाना होता है। जबकि यूथ इसके अपोजिट सोचने लगा है। अकाउंट्स प्रफेशनल अंकित कहते हैं, `मैं अपने परिवार वालों द्वारा मेरे साथ बांध दिए गए किसी भी पार्टनर के साथ अपनी सारी जिंदगी बर्बाद करने को तैयार नहीं हूँ। हमें उसके साथ कुछ दिन रहने और एक-दूसरे का जानने समझने का मौका मिलना चाहिए। अगर हमें एक-दूसरे का साथ भाता है, तो शादी कर लें। नहीं तो मैं अपने रास्ते और तुम अपने रास्ते।´

इक आग का दरिया है
भले ही युवा `लिव इन´ को एक अभिनव परिवर्तन के रूप में देख रहे हों, लेकिन अगर वास्तविकता के धरातल पर आकर देखा जाए, तो यह राह इतनी आसान नहीं है। शुरुआत में लड़कियों को भी लिव इन अच्छा लगता है। आखिरकार उन्हें हर वक्त साथ निभाने वाला पार्टनर जो मिल जाता है, लेकिन इस रिश्ते की कड़वी सच्चाई उन्हें तब पता लगती है, जब उनका साथी साथ छोड़ कर जाने की बात कहता है। ऐसे में पैरंट्स, समाज और यहां तक की कानून भी उनकी कोई मदद करने का राजी नहीं होता। और अगर वह प्रेग्नेंट हो गई है, तो उसके पास दुनिया की जिल्लतें और ताने सुनने के अलावा कोई चारा नहीं होता। मीडिया प्रफेशनल सारिका (बदला हुआ नाम )बताती हैं, `जब मैं मॉस कम्युनिकेशन का कोर्स कर रही थी, तो राहुल मेरी जिंदगी में आया। मैंने हॉस्टल छोड़कर उसके साथ रहना शुरू कर दिया। कोर्स के दौरान का वक्त काफी हंसी-खुशी बीता। उसके बाद उसे एक अच्छी जगह नौकरी मिल गई। साथ ही मैंने उसे एक और खुशखबरी सुनाई कि मैं उसके बच्चे की मां बनने वाली हूँ, तो वह मुझे छोड़कर भाग गया। मैं डिप्रेशन में आकर स्यूसाइड करने जा रही थी। वह तो शुक्र है कि मेरी कुछ फ्रेंड्स ने सहारा दिया और मेरा अबॉर्शन करवा दिया। सच में वह मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी।´

चिंतित है कोर्ट और सरकार
तमाम तरह की परेशानियों की बावजूद `लिव इन´ में रहने वाले युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि अब सरकार को भी `लिव इन´ में रहकर परेशानियों का शिकार हो रही महिलाओं के बारे में सोचना पड़ रहा है। पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसके तहत क्रिमिनल प्रोसिजियर कोड की धारा 125 में बदलाव करके पर्याप्त समय से `लिव इन´ में रह रही महिला को पत्नी जैसे अधिकार देने की बात कहीं गई है। हालांकि कई सामाजिक संगठनों ने इसे `लिव इन´ को बढ़ावा देने का प्रयास बताया है। समाज शास्त्री अभय कुमार दूबे कहते हैं, `मैं इस प्रस्ताव का स्वागत करता हूँ । बदलते वक्त में हमारे यहां सब कुछ बदल रहा है। पहले सिर्फ दिन में काम करने वाले युवा अब पूरी रात काम करने लगे हैं। ऐसे में उनकी सेक्सुअल जरूरतों में भी बदलाव आ रहा है। यही वजह है कि यूथ शादी की परंपरा को भी बदलना चाह रहा है। अगर पश्चिमी देशों पर नजर डालें, तो कई देशों में काफी लोग `लिव इन´ में रह रहे हैं। भारत में भी इस कॉन्सेप्ट को रोका नहीं जा सकता। इसलिए हमें इसमें रहने की आदत डालनी होगी। साथ ही लड़कियों की सुरक्षा के उपाय भी करने होंगे।´

महिलाओं के हित में है प्रस्ताव
महिला हितो के लिए काम करने वाले संगठन सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की डायरेक्टर रंजना कुमारी भी महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव का समर्थन करती हैं। उन्होंने बताया, `इस प्रस्ताव में ऐसी महिलाओं के हितों की बात की गई है, जिन्हें समाज, परिवार और पुरुष तिरस्कृत करते हैं। उन्हें तरह-तरह के अभद्र विशेषणों से नवाजा जाता है। जबकि पुरुष को कोई कुछ नहीं कहता। `लिव इन´ हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। पैसे और पावर के बल पर पुरुष हमेशा से पत्नी के अलावा किसी दूसरी औरत का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। वह उसे इस्तेमाल करके कभी भी छोड़ने के लिए स्वतंत्र होते हैं। इस तरह का कानून बनने के बाद उन्हें किसी औरत से फायदा उठाने से पहले सोचना होगा कि बाद में उसकी जिम्मेदारी भी उठानी होगी। इससे `लिव इन´ के मामलों में होने वाली धोखाधड़ी में कमी आएगी। और रही इस प्रस्ताव के विरोध की बात, तो मुझे लगता सिर्फ `लिव इन´ के नाम पर महिलाओं से फायदा उठाने वाले पुरुष ही इसका विरोध कर रहे हैं।´

Saturday 15 November, 2008

उगते सूरज को सलाम!


अक्सर लोकल लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स को शिकायत रहती है कि उन्हें मीडिया कवरेज नहीं मिलती। इन शिकायतों में कितनी सच्चाई है। अगर ऐसा होता है, तो क्यों होता है? इन्हीं सारे सवालों का जवाब तलाशती एक रिपोर्ट:

एक जाने-माने हिंदी अखबार के ऑफिस के बाहर बैठा नौजवान काफी निराश और हताश नजर आ रहा है। वह एक क्रिकेटर है, जिसने एक लोकल टूर्नामेंट में बेहतरीन बॉलिंग की है। अगर अखबार में उसके बारे में कुछ छप जाए, तो उसे आगे बढ़ने का मौका मिल सकता है। इसी वजह से वह तीन दिनों से अखबार के ऑफिस के चक्कर काट रहा है। काफी कोशिश के बाद उसकी सिंगल कॉलम खबर छप गई। हालांकि वह नौजवान इससे कतई खुश नहीं था, क्योंकि वह फ्रंट पेज पर छपना चाहता था। इसलिए उसने अपने दम पर ऐसा करने की ठानी और एक दिन कामयाब भी हुआ। आज हम लोग उस नौजवान को भारतीय क्रिकेट टीम के चमकते सितारे फास्ट बॉलर प्रवीण कुमार के रूप में जानते हैं।
यह तो हुई प्रवीण कुमार की बात, जिन्होंने शुरुआती लेवल पर मीडिया की बहुत ज्यादा अटेंशन नहीं मिलने के बावजूद भी खुद को इस लायक बना लिया कि आज मीडिया उनके पीछे भागता है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसे कितने भाग्यशाली खिलाड़ी होते हैं, जो लोकल लेवल से खेलकर कामयाब होते हैं? हरेक खेल से जुड़े जूनियर प्लेयर्स को यह शिकायत रहती है कि मीडिया में उनकी ज्यादा कवरेज नहीं होती, जिस वजह से उन्हें आगे बढ़ने का मौका नहीं मिलता। कई बार लोकल लेवल पर उभरने वाली कई प्रतिभाएं इसी वजह से सामने नहीं आ पातीं। सॉफ्टवेयर प्रफेशनल राजीव बताते हैं कि मैं बचपन में नैशनल लेवल पर फुटबॉल खेला था। इसके बावजूद मेरे पापा ने मुझे फुटबॉल में करियर नहीं बनाने दिया। जबकि वॉलिबॉल में स्टेट लेवल पर खेलने वाली मेरी फ्रेंड कीर्ति को आगे खेलने का मौका मिल गया, क्योंकि अखबार में उसका फोटो छपा था। काश किसी अखबार ने मेरा भी फोटो छाप दिया होता, तो आज मैं भी फुटबॉल प्लेयर होता।
आखिर क्या वजह है कि मीडिया हाउस लोकल लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स को इतना अटेंशन नहीं देते? नई दिल्ली से छपने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के स्पोट्र्स इंचार्ज कहते हैं, `ऐसा कुछ नहीं है कि हम लोग लोकल या स्टेट लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स को कवरेज नहीं देते। हमने दिल्ली के कई टीनएजर्स को कवरेज देकर आगे बढ़ाया है। यह सच है कि हमारे लिए लोकल लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स के बीच टैलंट तलाशना काफी मुश्किल होता है। ऐसे में अगर कोई प्लेयर खुद हमारे पास आता है, तो हम उसे जरूर अटेंशन देते हैं।´ जबकि जाने-माने क्रिकेट कोच संजय भारद्वाज इस मुद्दे को एक अलग नजरिए से देखते हैं, `वह कहते हैं कि अगर न्यूजपेपर एक लोकल प्लेयर की फोटो सचिन तेंडुलकर के बराबर में छाप दें,तो यह उसके साथ अन्याय होगा। अगर उन्हें लोकल लेवल पर ही अच्छी कवरेज मिलने लगेगी, तो उनमें आगे बढ़ने की तमन्ना खत्म हो जाएगी। साथ ही अगर आपको शुरुआती लेवल पर ही अच्छी कवरेज मिलने लगे, तो जल्द करियर खत्म हो जाने के चांस भी बढ़ जाते हैं। ऐसा सिर्फ हमारे देश में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में होता है।´